Ayodhyadarpan 4.37

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Opp. Birla Dharma Shala, Ayodhya,Faizabad, U.P.
Ayodhya, 224001
India

About Ayodhyadarpan

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मै अयोध्या हूँ

अष्टचक्र नवाद्वारा देवानां पूऽयोध्या। तस्वां हिरण्यमयाःकोष स्वर्गोज्योतिषा वृताः।।
इस मंत्र में श्री अयोध्या जी को देवताओं की नगरी कहा गया है। यह आठ चक्र और नौ द्वारों से शोभित है तथा उसमें स्वर्ण के समान हिरण्मय कोष है जो दिव्य ज्योति से घिरा है- (अर्थवर्वेद-दशम स्कन्द)। अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, काँची, अवन्तिका (उज्जैन)। पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्ष दायिका’’ में अयोध्या भारत वर्ष की मोक्षदायनी पुरियों में सर्वमान्य है।
यह नगरी 26-47’ उत्तरी अक्षांश और 82- 15’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। इसे महाराज मनु द्वारा पृथ्वी पर सृष्टि का प्रधान कार्यालय बनाने के लिये बैंकुण्डनाथ से यहाँ लाया गया था। यह पुरी सभी बैकुण्ठों (ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, गोलोक आदि सभी देवताओं का लोक बैकुण्ड है) का मूल आधार है - अर्थवर्वेद। इस पावन नगरी की गोद में साक्षात् भगवान ने स्वयं अवतार लिया।
अथर्ववेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है और इसके महत्व की तुलना स्वर्ग से की गई. अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर है यहां पर हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अनेक मत व अवशेष देखे जा सकते हैं जैन धर्मावलम्बियों के मता अनुसार यहां आदिनाथ सहित पांच र्तीथकरों का जन्म हुआ था.
जैन धर्म के आदि पुराण में अयोध्या शब्द का अर्थ जिसे शत्रु जीत न सके, वर्णित हैं। आज से लाखों वर्ष पूर्व अयोध्या में वैवस्तु मनु नामक राजा ने इसे‘अपनी राजधानी बनाया उस समय इसकी लम्बाई 120 कोस व चौड़ाई 48 कोस थी। भगवान रामचन्द्र जी के काल में इसका घेरा 84 कोस में था इसके चारों दिशाओं में चार पर्वत थे पूर्व में श्रृगराद्रि, पश्चिम में नीलाद्रिक उत्तर में मुक्तावद्रि, और दक्षिण में मणिकूट (मणिपर्वत) आज भी शोभायमान है।
इस दिव्य धाम में वैसे तो मंदिरों की बड़ी श्रृंखला है लेकिन अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले कुछ प्रमुख स्थानों में रामजन्मभूमि, हनुमानगढ़ी, कनक भवन, नागेश्वर नाथ, छोटी देवकाली, लक्ष्मण किला, ब्रह्मकुंड, राम मंत्रार्थ मंडपम, राम बल्लभाकुंज, चार धाम आश्रम-छोटी छावनी, अशर्फी भवन, श्री अयोध्या नाथ मंदिर एवं दीगम्बर जैन-मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। ‘सरयू नदी के उल्लेख’ के बिना अयोध्याजी की दिव्यता एवं भभ्यता अधूरी है। सरयू जी की उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है कि राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरू वशिष्ठ जी से अयोध्या में एक नदी लाने की प्रार्थना की। उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे सरयू को यहाँ लाने की आज्ञा प्राप्त की। इस प्रकार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को श्री सरयू जी मानस सरोवर से निकली और इस पवित्र भूमि पर अवतरित हुई। कहा तो यहाँ तक जाता है श्री सरयू जी मोक्ष देने वाली साक्षात् जलरूपी ब्रह्य हैं संसार के सभी तीर्थों का निवास तथा उसमें स्नान करने से सभी तीर्थों का पुण्य फल प्राप्त होता है। जो पुण्यफल एक हजार मनवन्तर तक काशीवास करने को मिलता वही पुण्य फल सरयू दर्शन मात्र से प्राप्त होता है।
प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार श्री रामचन्द्र जी जब अपनी प्रजा के साथ दिव्य धाम को चले गये तो अयोध्या भी उजाड़ हो गई सम्पूर्ण मठ, मंदिर, सम्पत्ति आदि सरयू में विलीन हो गई और चारों तरफ जंगल ही जंगल हो गया। कालान्तर में द्धापर युग के आदि में महाराज कुश और मध्यकाल में ऋषभक नामक राजा ने पुनः इस नगरी को बसाया और हजारों वर्षों तक अयोध्या मनोहारी रूप में विकसित रही। तत्पश्चात कलियुग के प्रथम सहस्रबादि के बाद शाक्य वंश के उत्तराधिकारियों ने यहाँ शासन किया किन्तु तीन पीढि़यों के निरन्तर अमंगल होने के कारण शुद्धोधन को भी अयोध्या छोड़ देनी पड़ी।
यद्यपि वेदों एवं पुराणों में अयोध्या का वर्णन प्रत्येक युग में मिलता है किन्तु इसका ऐतिहासिक स्वरूप विक्रमादित्य के समय से ही प्राप्त होता है। आज वर्तमान स्वरूप में दिखाई पड़ने वाली अयोध्या नगरी का जीर्णाेद्वार कार्य एवं विकास युघिष्ठिर संवत् 2426 में महाराज यान्धव सेन के पुत्र विक्रमादित्य ने प्रारम्भ किया। उनके हृदय में इस प्राचीनतम पुरी के उद्धार की प्रेरणा हुई तत्पश्चात् अयोध्या आकर उन्होंने यहाँ रूककर यहाँ के 160 स्थानों का चिन्ह्ांकन कर उनका पुनरद्धार संवत् 2432 तक पूर्ण किया।
इस पुनरोद्धार के दौरान यहाँ पर मिले टीलों एवं कुंण्डो का जीर्णोद्धार भी कराया गया जिसकी गरिमा आज भी अयोध्या की वैभव शाली अतीत का परिचय कराने में सक्षम है। टीलों एवं कुंडो की चर्चा यदि की जाये तो आज भी यहाँ सुग्रीव टीला, नल-नील टीला, अंगद टीला, कुबेर टीला, लक्ष्मण टीला अपने नैसर्गिक स्वरूप में है। यहाँ पर लगभग 50 की संख्या में कुंण्डो का उल्लेख भी मिलता है जिसमें से विद्याकुंड, विभीषण कुंड, वशिष्ठ कुंड, दंतधावन कुंड सहित सीता कुंड आदि का पुर्ननिर्माण विगत वर्षों में कर उनके शाश्वत रखने का प्रयास किया गया है।
यहाँ पर लगभग सभी जातियों के पंचायती मंदिरों का निर्माण भी उनके पूर्वजों द्वारा कराया गया है जिनमें-मुराव, यादव, कुर्मी, निषाद, क्षत्रिय, ठठेर, तेली पंचायती मंदिरों में आज भी वार्षिक कार्यक्रम सम्पन्न होते रहते है। यहाँ पर वर्ष भर में प्रमुख रूप से रामनवमी, कार्तिक पूर्णिमा, श्रावण पर्व, सूर्य कुंड मेलों। का विशेष महत्व हैं। जिसमें देश एवं प्रदेश के लगभग सभी प्रान्तों एवं अंचलों के भक्तों की भागीदारी होती है।
इतनी महात्मता समेटे हुए नगरी अयोध्या, मधुरा, माया (हरिद्वार), काशी,कांची, द्वारिका, अवन्तिका (उज्जैन) के साथ सात धर्म नगरियों में शीर्षस्थ है। लेकिन अफसोस यह नगरी स्वस्थ मानवीय जीवन मूल्यों के अभाव में आम शहरों की भांति ही दिखती है।
आऐं हम सभी मिलकर इस प्राचीन एवं धार्मिक नगरी का नैतिक, शैक्षिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक,धार्मिक व सांस्कृतिक विकास कर एक आदर्श स्थापित करें। जिससे पुनः यह नगरी विश्व में अपना परचम लहरायें तथा मनुस्मृति में वर्णित उक्ति इस धरा पर पैदा होने वाले प्राणी अग्रजन्मा कहलाते हैं जिसके चरित्रों से समस्त पृथ्वी के मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते हैं, चरितार्थ हो।